Friday, June 17, 2011

मीठे में क्या है?

Well, as promised, We are back. This is part 2 of my collaboration with the world famous Shiv Mishra , who blogs in Hindi at http://www.shiv-gyan.blogspot.com/ .

रोज की तरह आज भी शर्मा जी ने टाइम पर डिब्बे में रखे लंच का संहार किया. अचार के मसाले को चाटते हुए उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी. लंच के बाद जब वे हाथ धो रहे थे, उस समय भी एक बार फिर से उनके चेहरे पर उसी मुस्कान का एक्शन रिप्ले हुआ जो उनके अचार का मसाला चाटते हुए आई थी. आइये जानने की कोशिश करते हैं कि शर्मा जी के मुखड़े पर इस मुस्कान के आने का कारण क्या है? उनसे पूछें? जाने दीजिये. मूड तो उनका ठीक है लेकिन मैनेजर ही तो हैं. पता नहीं कब बिदक जायें? वैसे भी आज सुबह से अभी तक किसी बात पर वे बिदके नहीं हैं. ऐसे में क्या पता कि हमारे सवाल पर ही बिदक जायें? 


आफिस में रहते हुए मैनेजर अगर फ्रीक्वेन्टली नाराज़ न हो तो उसे मैनेजर माननेवालों की संख्या दिनों- दिन कम होती जाती है.

तब कैसे पता चलेगा? चलिए शर्मा जी के मन की बात पढ़ने की कोशिश करते हैं. क्या कहा? यह संभव नहीं? लगता है आपने श्री गोविंदा की महान फिल्म दूल्हे राजा नहीं देखी है इसीलिए ऐसा कह रहे हैं. आपने देखा नहीं कि उस फिल्म में गोविंदा जी किस तरह से किसी के मन की बात सुन लेते.....क्या कहा? समझ में आ गया? ये अच्छा हुआ नहीं तो मैं उस फिल्म के डायलॉग लिखकर आपको बताने की कोशिश करता जिससे आप बोर होते. समझदार पाठक की यही निशानी है कि वह बोरे होने से बचता रहे.

तो चलिए शर्मा जी के मन की बात सुनते हैं....मैंने पता लगा लिया. अब पढ़िए कि शर्मा जी क्यों मुस्कुराए.

आज उन्होंने अपने एक क्लायंट के साथ तीन बजे मीटिंग फिक्स कर ली है. काबिल मैनेजर की यही निशानी है कि वह अपने आफिस से दूर किसी क्लायंट से तीन बजे मीटिंग फिक्स कर ले जिससे मीटिंग ख़त्म होते-होते साढ़े चार बज जाए. जिससे वह वहाँ से निकल कर अपने आफिस फ़ोन करके यह बता सके कि अब आफिस पहुँचते-पहुँचते साढ़े पाँच बज जायेंगे इसलिए वह यहीं से घर चले जा रहे हैं. वैसे भी आफिस में कोई और मीटिंग तो है नहीं. आज मंगलवार है और मिड ऑफ द वीक मीटिंग वृहस्पतिवार को होती है. उस दिन तो छ से नौ बजे तक झक मारकर आफिस में बैठना ही पड़ता है. ऐसे में क्यों न वे आज घर जल्दी पहुंचकर मिसेज शर्मा को सरप्राइज दें?

श्रीमती जी सरप्राइज देने वाली बात उनके मन में आई ज़रूर है लेकिन उसको लेकर वे बहुत कन्विंश नहीं हैं. कारण यह है कि उन्होंने जब भी अपनी श्रीमती जी को सरप्राइज देने की कोशिश की है उनका सरप्राइज औंधे मुँह गिरा है. पहली बार कोशिश उन्होंने तब की थी जब मिसेज शर्मा के जन्मदिन पर उन्होंने एक फेमस ब्रांड की ईयर-रिंग्स खरीद कर उन्हें गिफ्ट की थी. उन ईयर-रिंग्स को देखकर मिसेज शर्मा का पहला रिएक्शन था; "क्या जरूरत थी इतना पैसा खर्च करने की?" दूसरा रिएक्शन था "इसकी डिजाइन कित्ती तो ओल्ड है."

श्रीमती जी के रियेक्शंस सुनकर शर्मा जी को एक क्षण के लिए लगा कि उनके फ्लैट की फर्श फट जाए जिससे वे उसमें समा जायें. यह बात अलग थी कि ऐसा हो न सका. बिल्डर ने फ्लैट की फर्श उतनी भी कमजोर नहीं बनाई थी कि घर की मालकिन को ईयर-रिंग्स पसंद न आने पर फट जाती. अपनी शर्म को समेटे शर्मा जी को मन मार कर चुप रह जाना पड़ा था. दूसरी बार उनका सरप्राइज तब औंधे मुँह गिरा था जब काम करने वाली मेड के दो दिनों तक न आने की वजह से उन्होंने श्रीमती जी की मदद करने के लिए तब बर्तन धो देने की कोशिश की थी जब वे नीचे सब्जी वाले से सब्जी खरीदने गयीं थीं. वापस आकर जब उन्होंने देखा कि शर्मा जी ने सारे बर्तन धो डाले थे तो उन्होंने यह कहते हुए अपनी नाराजगी दिखाई कि; "जब तुम्हें मालूम नहीं है कि बर्तन धोकर रखना कैसे है तो क्या जरूरत थी उसे धोने की?"

उस दिन फर्श में समा जाने की बात उनके मन में नहीं आई क्योंकि उन्हें यह बता पता थी कि फर्श के फटने का कोई चांस नहीं था. हाँ, यह बात मन में जरूर आई कि कौन सा बहाना बनाकर वे घर से तीन-चार घंटे के लिए निकल जायें? चूंकि उन्हें तुरंत कोई बहाना नहीं सूझा था इसलिए घर में ही रहकर आधे घंटे तक वे मिसेज शर्मा की बातें सुनते रहे. कुछ देर बाद टीवी पर चल रहे एक सिंगिंग रियलिटी शो ने उन्हें उबारा. तीसरी बार उनका सरप्राइज तब...खैर जाने दीजिये. पुरानी बातों के बारे में बात करके क्या फायदा?

वहीँ दूसरी तरफ मिसेज शर्मा ने जब भी चाहा 'आर्यपुत्र' को सरप्राइज देने में हमेशा कामयाब रहीं. पहली बार उन्होंने तब सरप्राइज दी जब पड़ोस की अपनी फ्रेंड मिसेज सुरी के रस्ते पर चलते हुए एक बदनाम फिनांस कंपनी में डिपोजिट अकाउंट इसलिए खोला क्योंकि उसके एजेंट के अनुसार पाँच साल तक पैसा जमा करने से उन्हें कंपनी के हाउसिंग प्रोजेक्ट में फ्लैट मिलना था. दूसरी बार मिसेज शर्मा ने तब सरप्राइज दिया...खैर जाने दीजिये. जब शर्मा जी के सरप्राइज की बात और नहीं हुई तो बराबरी का तकाजा है कि मिसेज शर्मा के सरप्राइज की बात को भी आगे न बढ़ाया जाय.

अपनी सरप्राइज देने की कोशिशों के हर बार धरासायी होने के बावजूद आज एक बार फिर से शर्मा जी के मन में आया कि सरप्राइज पर एक बार फिर से हाथ आजमाया जाय. कोशिश करने में हर्ज़ ही क्या है? उन्होंने आठवीं कक्षा में बच्चन जी की कविता बड़े मन से पढ़ी थी जिसमें बताया गया था कि; "कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.." बच्चन जी की फिलासफी से प्रभावित शर्मा जी ने आज मन में एक बार फिर से ठान ही लिया कि वे बहुत दिनों बाद श्रीमती जी को सरप्राइज करेंगे.

मीटिंग ख़त्म करके वे घर की तरफ रवाना हो लिए.

कार की पिछली सीट पर बैठे वे घर की तरफ चले जा रहे हैं. अगर आप वैज्ञानिक बुद्धि की अधिकता वाले पाठक हैं तो यह भी कह सकते हैं कि शर्मा जी घर की तरफ कहाँ जा रहे हैं? घर की तरफ तो उनकी कार जा रही है और यह संयोग की बात है कि चूंकि वे भी उसी कार में बैठे हैं इसलिए वे भी घर की तरफ जा पा रहे हैं. खैर जो भी हो, घर की तरफ चले जा रहे शर्मा जी ने अपनी घड़ी पर एक निगाह डाली. मन ही मन सोचा; 'वाह,! आज बहुत दिनों बाद सवा पाँच बजे तक घर पहुंचकर मिसेज को सरप्राइज दूंगा.'

आस-पास से जाने वाली कारों में बैठे लोगों को देखकर वे मन ही मन यह अनुमान भी लगाते जा रहे थे कि इनमें से कितने लोग़ इतनी जल्दी अपने घर जा रहे होंगे? दूसरे ही पल सोचते; 'इनलोगों को देखकर तो नहीं लगता कि ये लोग़ अपने घर जा रहे हैं. देखकर तो यही लगता है कि क्लायंट के साथ मीटिंग करके अपने आफिस वापस जा रहे हैं.'

उनके मन में कई बार आया कि किसी सिग्नल पर वे कार का विंडो ग्लास नीचे खिसका कर बगल वाली कार में बैठे साहब से पूछ लें कि; "आप क्लायंट के साथ मीटिंग ख़त्म करके अपने आफिस वापस क्यों जा रहे हैं? वहीँ से घर क्यों नहीं चले गए? मुझे देखिये...." उनके मन में यह भी आया कि एक बार विंडो ग्लास नीचे खिसका कर वे चिल्लाकर लोगों को बताएं कि वे आज बहुत जल्दी अपने घर जा रहे हैं. यह भी कि जल्दी घर पहुंचकर अपनी श्रीमती जी को सरप्राइज देना चाहते हैं. यह भी कि जीवन की इस आपा-धापी में बीच-बीच में ऐसा करने से एक मैनेजर की घर के प्रति जिम्मेदारियां निभ जाती हैं.

ऐसा करने के बाद कोई उसके ऊपर आरोप नहीं लगा सकता कि वो केवल आफिस में अपने काम में बिजी रहता है और घर की तरफ ध्यान नहीं देता.

न्यूटन जी का रहस्योद्घाटन कि; "कोई वस्तु गतिशील अवस्था में तबतक रहती है जबतक उसपर बाहरी बल न लगाया जाय", आज एक बार फिर से तब सच्चा साबित हुआ जब शर्मा जी के ड्राइवर ने बिल्डिंग के नीचे पहुँच चुकी उनकी कार पर ब्रेक लगा दिया. थोड़ी ही देर में शर्मा जी अपने फ्लैट के सामने थे. उन्होंने "आज मौसम है बड़ा, बेईमान है बड़ा.." गुनगुनाते हुए डोरबेल बजाई. करीब तीन मिनट तक दरवाजा नहीं खुला. उन्होंने एक बार फिर से मौसम के बेईमान होने की बात गाने में बताते हुए डोरबेल बजाई. इसबार दरवाजा खुला. सामने मिसेज शर्मा खड़ी थीं.

उन्होंने बायें हाथ से दरवाजा खोला. अपने दायें हाथ की उँगलियों को इस तरह से आड़ी-तिरछी कर रखी थीं जैसे परदे पर शैडो बनानेवाला कोई कलाकार तोता बनाने की कोशिश करता हुआ बरामद हुआ हो. उँगलियों को आड़ी-तिरछी रखकर तोता बनाने के पीछे कारण यह था कि जब अचानक डोरबेल बजी तो वे किचेन में बर्तन धो रही थी. ऐसे में पानी में भीगी उँगलियों और हथेली का तोते में कन्वर्ट हो जाना एक स्वाभाविक बात थी.

दरवाजा खोलने के बाद अपनी उँगलियों से बनाये गए तोते को बड़े प्यार से संभालते हुए वे वापस किचेन में चली गईं. शर्मा जी के चेहरे पर गर्व के वही भाव थे जो जल्दी घर आकर सरप्राइज देने वाले हसबैंड के चहरे पर होते हैं. सोफे पर बैठते हुए उन्होंने मिसेज से कहा; "डार्लिंग, एक कप चाय हो जाए."

इतना कहने के बाद वे एक बार फिर से बेईमान मौसम की बात वाले गीत के बहाने मोहम्मद रफ़ी की मिमिक्री करने की कोशिश करने लगे. पाँच मिनट बाद मिसेज ने टेबिल पर लाकर चाय से भरा कप लगभग पटकते हुए रख दिया. एक कप चाय देखकर शर्मा जी बोले; "अरे, अपने लिए नहीं बनाया? एक ही कप चाय ले आई?"

उनकी बात सुनकर मिसेज शर्मा बोलीं; "तुम्ही ने तो कहा कि एक कप चाय हो जाए. तो एक कप ले आई."

मिसेज की बात के सहारे उनका तेवर पढ़ते हुए उन्हें अपना सरप्राइज आज एकबार फिर से धरासायी होता हुआ दिखाई दिया. स्थिति को भांपकर उसे सँभालने की कोशिश करते हुए बोले; "हे हे, तुम भी न. अच्छा कोई बात नहीं. चलो आज कटिंग चाय पी लेंगे."

उनकी बात सुनकर मिसेज शर्मा ने कप उठाकर एक घूँट चाय पी और कप को प्लेट में वैसे ही पटका जैसे एल बी डब्लू के गलत डिसीजन का शिकार बैट्समैन अपना बैट पटकता है. यह करने के बाद वे फिर से रसोई घर में चली गईं.

अपनी सरप्राइज को जिन्दा रखने की कवायद करते हुए शर्मा जी ने उसे फिर से बातों की संजीवनी बूटी पिलाने की कोशिश की. बोले; "चलो, आज जल्दी आ गया हूँ तो बाहर चलकर डिनर करते हैं. आज चायनीज खाते हैं."

उनकी बात सुनकर मिसेज ने रसोई से ही आवाज़ लगाई; "कोई जरूरत नहीं है. वैसे भी खाना बन गया है."

शर्मा जी ने परिस्थिति को फिर से सँभालने की कोशिश करते हुए कहा; "कोई बात नहीं. डिनर में तो अभी देर है. चलो जुहू चौपाटी चलते हैं. वहाँ थोड़ा घूम लेंगे. पानीपूरी खाए बहुत दिन हो गया, आज पानीपूरी खाकर आते हैं. वैसे एक काम और कर सकते हैं. वो पृथ्वी थियेटर में कई महीनों से एक बड़ा हिट प्ले चल रहा है,रावणलीला. सुना है बहुत कॉमेडी प्ले है. उसको देख आते हैं."

उनकी बात सुनकर मिसेज शर्मा और भड़क गईं. बोलीं; "और ये काम कौन करेगा? किचेन में इतना बर्तन पड़ा है उसको कौन धोएगा? हुंह, और रावणलीला देखने के लिए थियेटर क्यों जाना? रावणलीला तो में घर में ही देख रही हूँ. वो कम है क्या?"

उनकी बात सुनकर शर्मा जी किचेन में गए. किचेन का स्लैब बर्तनों से भरा था. अब उन्हें अपने सरप्राइज के चित हो जाने की चिंता नहीं थी. उन्हें पता चल चुका था कि उन्होंने जितना समझा था, मामला उससे ज्यादा सीरियस है. बोले; "तुम बर्तन धो रही हो? सक्कुबाई नहीं आई क्या आज?"

उनके सवाल के जवाब में मिसेज शर्मा बोलीं; "वो क्या आएगी? मैं उसे आने दूँ तब न. उसका बस चले तो मुझे ही घर से निकाल कर इस घर पर कब्ज़ा कर ले. मैंने उसको निकाल दिया. हुंह, बड़े आये रावणलीला दिखाने वाले."

मिसेज शर्मा अब आपे से बाहर थीं. बायें हाथ से बालों को ठीक करते हुए बोलीं; "मैंने उसको ऐसे ही नहीं निकाला."

"लेकिन क्यों? वह तो अच्छा ही काम करती थी. खुद तुमने कई बार उसकी तारीफ़ की है"; शर्मा जी को अभी भी समझ में नहीं आ रहा था कि श्रीमती जी ने सक्कुबाई को निकाला क्यों?

"हाँ, तुम तो बोलोगे ही कि अच्छा काम करती थी. मैं क्या समझती नहीं हूँ? सब एक जैसे हैं. जगह कोई भी हो, सारे मर्द एक जैसे हैं. जैसा वो शाइनी आहूजा और खान, वैसे ही तुम"; मिसेज शर्मा ने अपनी बात रखकर धर दिया.

उनकी बात सुनकर शर्मा जी को हँसी आ गई. बोले; "कोई खान भी मेड के चक्कर में फंस गया क्या? कौन वाला फंसा?"

"हंसो मत. जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं कि मैं वो अमेरिका वाले खान की बात कर रही हूँ. वो जो होटल में मेड के साथ...."

श्रीमती जी की बात सुनकर शर्मा जी की हँसी दिन दूनी रात चौगुनी स्टाइल में बढ़ गई. बोले; "अरे वो खान नहीं है. उसका नाम कान है. डोमिनिक स्ट्रॉस कान. और डार्लिंग, तुम मेरे ऊपर इतना बड़ा एलीगेशन लगा रही हो? मैंने तो आजतक सक्कुबाई से ढंग से बात भी नहीं की. मैंने ऐसा क्या कर दिया जो तुम मुझे शाइनी..... "

"अच्छा, तुम्हें क्या लगता है, मुझे कुछ मालूम नहीं है? वो सक्कुबाई ने मुझे सबकुछ बता दिया है"; मिसेज ने अब जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया था.

"अरे क्या बता दिया है?"; अब शर्मा जी को मामला और पेंचीदा लग रहा था.

"वही जो वो लड़का उस चॉकलेट के ऐड में अपनी वाइफ से रोज-रोज कहता है. आज मीठे में क्या है? आज मीठे में क्या है? उसने खुद बताया कि न जाने कितनी बार डिनर ख़त्म होने के बाद तुमने सक्कुबाई से पूछा कि मीठे में क्या है? अब कह दो कि तुमने ये नहीं पूछा?"; मिसेज शर्मा की आवाज़ तेज होती जा रही थी.

वे बोलती जा रही थीं और शर्मा जी को लग रहा था कि मिसेज शर्मा का हर शब्द शर्मा जी के सरप्राइज के गुब्बारे में पिन बनकर चुभता जा रहा है. गुब्बारे की हवा निकलती जा रही थी.

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2 comments:

Unknown said...

Very interesting and varied writing.
And the complete framework too!
Never knew, an urban set-up and traditional writing could cook up such a feast!

Carry on with such wonderful experimentation, it is unique for both the worlds and would take some time to get used to. But then its Relishing undoubtedly!!

Alka Gurha said...

Thats hilarious... this ad catchline has worked at many levels....